“खेल खेल में मेडल दिलाने वाले प्रतिभाओं के लिए ‘खेलकूद’ का माहौल बने”

“खेल खेल में मेडल दिलाने वाले प्रतिभाओं के लिए ‘खेलकूद’ का माहौल बने”
भारतीय महिला हॉकी टीम

टोक्यो ओलंपिक 2020 में भारतीय खिलाड़ियों का जोश हाई है। भारत ने अब तक दो ओलंपिक मेडल हासिल कर लिए हैं। उम्मीद है कि महिला हॉकी और 64 किलोग्राम वर्ग में जल्द ही मेडल जीतने की खुशखबरी मिल सकती है। हालांकि पुरुष हॉकी के सेमीफाइल में भारत की हार के बाद एक बार फिर से टीम के मनोबल पर थोड़ा असर पड़ा है। हॉकी को लेकर पूरे देश से मिल रहे प्रोत्साहन से टीम का जोश हाई है और उम्मीद की जा रही है कि भारत को कांस्य पदक मिल जाए। वेटलिफ्टिंग में मीराबाई चानू के शानदार प्रदर्शन ने खिलाड़ियों को कुछ नया करने की प्रेरणा दी है। 

टोक्यो ओलंपिक खेलों में भारतीय खेमे से पूर्वोतर राज्य की महिलाओं के अभूतपूर्व प्रदर्शन की गूंज को सारा देश गर्व से देख-सुन रहा है। असम की रहने वाली भारतीय महिला मुक्केबाज लवलीना बोरेहेन ने 64 किलो ग्राम वजन वर्ग में पदक पक्का कर लिया है। उसके मुक्को की बौछार के आगे क्वार्टर फाइनल में चीनी ताइपे की खिलाड़ी ह्यूलियन ने हाथ खड़े कर दिए। अगर लवलीना बोरेहेन अगले दो मुकाबले जीत जाती हैं तो भारत को गोल्ड भी मिल सकता है।

यह ठीक है कि ओलंपिक प्री क्वार्टर फाइनल में हार के कारण मैरी कॉम देश को कोई पदक नहीं दिलवा पाईं। पर उनसे देश को कोई शिकायत नहीं है। उन्हें रेफरी के गलत फैसले का नुकसान झेलना पड़ा। मैरी कॉम छह बार विश्व चैंपियन रहीं और एक बार भारत को ओलंपिक पदक भी जितवा चुकी हैं। इन उपलब्धियों पर मैरी कॉम जितना चाहे गर्व कर सकती हैं। क्योंकि वे अत्यंत ही विनम्र और व्‍यवहार कुशल हैं।

पूर्वोत्तर भारत नारी सशक्तिकरण के मामले में बहुत आगे बढ़ चुका है। वहां पर बहुत ही कम संसाधनों के बाद भी अभिभावक अपनी बेटियों को खेलों की दुनिया में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते ही रहते हैं। अगर बात हिन्दी भाषी राज्यों की हो तो यहां पर हरियाणा और झारखण्ड को छोड़कर बाकी राज्यों की बेटियां खेल की दुनिया में अबतक तो कोई खास मुकाम हासिल नहीं कर सकी हैं। अफसोस कि जिस दिल्ली में 1951 से ही खेलों के विकास के लिए जरूरी सुविधाओं पर फोकस दिया गया वहां से सिर्फ पांच नौजवान ही ओलंपिक में भाग ले रहे हैं। उनमें महिलाओं की भागेदारी मात्र मनिका बत्रा तक ही सीमित है। करीब दो करोड़ से अधिक की आबादी वाली दिल्ली को इस सवाल पर विचार करने की जरुरत है।

राजधानी दिल्ली में फिर 1982 में एशियाई खेल हुए। उन्हें नाम दिया गया एशियाड 82। इसके बाद 2010 में कॉमनवेल्थ खेल हुए। एशियाड 82 के सफल आयोजन के लिए जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम, इंदिरा गांधी स्टेडियम, करणी सिंह शूटिंग रेंज वगैरह का निर्माण हुआ था। साउथ दिल्ली में एशियन गेम्स विलेज बना। दिल्ली का चौतरफा विकास हुआ। कॉमनवेल्थ खेलों के समय पहले से बने स्टेडियमों को फिर से नए सिरे से विकसित किया गया। दिल्ली में एक खेल गांव भी बना। इन सब निर्माण कार्यों पर हजारों करोड़ रुपए खर्च हुए। पर इतने भव्य आयोजनों के बाद भी दिल्ली से विभिन्न खेलों में श्रेष्ठ महिला-पुरुष खिलाड़ी नहीं निकल पाए। साफ है कि दिल्ली, जहां आबादी का बहुमत उत्तर भारतीयों का है, वहां पर अभी तक खेलों की संस्कृति कायदे से विकसित नहीं हो सका। यह बात सारे उत्तर भारत के लिए भी कहने में संकोच नहीं किया जा सकता है। 

दरअसल, अब मैरी कॉम, मीराबाई चानू और लवलीना बोरेहेन जैसी महिला खिलाड़ी सारे देश की आधी आबादी के लिए प्रेरणा बननी चाहिए। इन सबने कठिन और विपरीत हालातों में भी अपने देश का नाम रोशन किया है। इन्होंने देश को कितने गौरव और आनंद के लम्हें दिए इसका अंदाजा तो इन्हें भी नहीं होगा।

भारत के खेल प्रेमियों को क्रिकेट के सितारों से भी आगे बढ़कर खेल के बारे में सोचने की जरुरत है। यह सही बात है कि हमारे यहां बाकी खेलों के खिलाड़ियों को उस तरह से सम्मान और पुरस्कृत नहीं किया जाता जैसे क्रिकेट के खिलाड़ियों को किया जाता है। यह भेदभाव अवश्य मिटना चाहिए। आप सोशल मीडिया की कुछ बिन्दुओं पर लाख बुराई कर सकते हैं पर यह तो मानना होगा कि इसके चलते ही सारे देश को पूर्वोत्तर भारत के खिलाड़ियों के जुझारूपन के बारे में पता चल सका है। सोशल मीडिया या पूरे देश में क्रिकेट मैच के दौरान सड़कों पर सन्नाटा छा जाता है लेकिन दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल फुलबॉल के बारे में लोगों को पता तक नहीं होता है।

पिछले कुछ सालों में भारत में खेलकूद को लेकर जो माहौल बना है उसे और अधिक बढ़ावा देने की जरुरत है। खेल मंत्रालय को इस पर पहल करना होगा और गरीब खिलाड़ियों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन और सुविधाएं मिले इस बात पर ध्यान देने की जरुरत है। हमारे देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन उन लोगों के साथ अन्याय होता रहा है। जो खिलाड़ी सरकारी नौकरी में होते हैं उन्हें सारी सुविधाएं दी जाती है लेकिन जिनके पास नौकरी या रोजगार नहीं होता है उन्हें खाने के लाले पड़ जाते हैं। यहां तक की उन्हें शोषण और अन्याय का सामना करना पड़ता है।

उमाकांत त्रिपाठी

(इस लेख में उमाकांत त्रिपाठी के व्यक्तिगत विचार हैं । फ़िलहाल वे भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय में मीडिया सलाहकार के पद पर कार्यरत है। उमाकांत त्रिपाठी की खेलकूद, राजनीति, समसामयिकी और मीडिया की गहरी समझ है । इस लेख में उमाकांत त्रिपाठी ने अपनी व्यक्तिगत संवेदनाएं और हाल में सोशल मीडिया पर हुई घटनाओं के आधार पर ओलंपिक खेलों में भारत के प्रदर्शन पर समीक्षा की है।