बैंक सरकारी होना चाहिए या प्राइवेट?

बैंक सरकारी होना चाहिए या प्राइवेट?

रिज़र्व बैंक की रिसर्च रिपोर्ट को लेकर बहस छिड़ गई है. रिपोर्ट का सार है कि सरकारी बैंक अच्छा काम कर रहे हैं और इन्हें प्राइवेट करने की जल्दबाज़ी नहीं करना चाहिए. कांग्रेस ने इसे लपक लिया कि अब तो रिज़र्व बैंक ने भी कह दिया. रिज़र्व बैंक स्वायत्त संस्था है, इसका काम सभी बैंकों को रेगुलेट करना भी है .रिज़र्व बैंक को सफ़ाई देना पड़ी कि ये रिसर्च करने वालों की राय है.

भारत में अभी 12 सरकारी बैंक है. सरकार दो बैंक बेचना चाहती है. बैंकों को लेकर क़ानून में बदलाव का प्रस्ताव भी है. अभी सरकार 51% मालिक होना क़ानून के हिसाब से ज़रूरी है. सरकार चाहती है कि उसकी हिस्सेदारी 26% तक आ जाएँ. बैंक यूनियन इसके ख़िलाफ़ है. कांग्रेस लगातार ये कह रही है कि जो उसकी सरकार ने बनाया उसे ये सरकार बेचने में लगी है.

बैंकों को किसने बनाया या बिगाड़ा है?

ये समझने के लिए 70 साल पीछे जाना पड़ेगा. इंपीरियल बैंक ब्रिटेन सरकार ने 1921 में बनाई थी. स्वतंत्रता के बाद इस बैंक को 1955 में संसद ने क़ानून पारित कर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया बना दिया. ये सबसे बड़ी सरकारी बैंक है. इसे प्राइवेट करने की बात नहीं हो रही है. सारी बहस उन बैंकों को लेकर है जिन्हें 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सरकारी बना दिया था. इसके बारे में मैंने पिछले हफ़्ते भी लिखा था. इन बैंकों के मालिक सुप्रीम कोर्ट में सरकार से जीत गए. सरकार ने बैंकों को अपने पास रखने के लिए क़ानून बना दिया. अब इसी क़ानून में बदलाव का प्रस्ताव है.

1992 तक सरकारी बैंक का बाज़ार पर शत प्रतिशत क़ब्ज़ा था. ये वो दिन थे जब सर्विस सुस्त होती थी. आपको बैंक से अपने ही पैसे निकालने के लिए घंटों तक लाइन में खड़े होना पड़ता था. ATM लगना शुरू ही हुए थे. बैंक में खाता बिना किसी परिचित के नहीं खुल सकता था. बैंक का कोई खातेदार आपकी पहचान का हो उसकी साइन ज़रूरी होती थी. फिर 1991 में बदलाव की शुरुआत हुई. प्राइवेट बैंक को लाइसेंस दिए जाने लगे. HDFC, ICICI शुरुआती बैंकों में थे. आज 27 प्राइवेट बैंक है और 12 सरकारी बैंक है. मुनाफ़े, सर्विस, मार्केट कैपिटलाइज़ेशन में सरकारी बैंक पीछे छूट गए हैं.

अब आते है रिज़र्व बैंक के रिसर्च पर. रिपोर्ट में भी माना गया है कि सरकार को बिज़नेस में नहीं होना चाहिए.इसी धारणा के कारण पूरी दुनिया में सरकारी बैंक की हिस्सेदारी घटी है. 2008 के संकट के बाद दूसरी सोच बनना शुरू हुई कि सरकार को बैंकिंग में होना चाहिए. सरकार की मौजूदगी से अर्थव्यवस्था में स्थिरता रहती है.

भारत के संदर्भ में सरकारी बैंक के पक्ष में तीन तर्क दिए गए है:

  1. प्राइवेट बैंक गाँवों में ब्रांच नहीं खोलते हैं. सरकारी बैंकों के 100 में से 33 ब्रांच गाँव में हैं जबकि प्राइवेट के सिर्फ़ 21.
  2. प्राइवेट बैंक के हर 100 में से 40 ATM मेट्रो शहरों में हैं जबकि गाँव में 8 वहीं सरकारी बैंक के 22 ATM मेट्रो शहरों में हैं जबकि गाँव में 21.
  3. प्रधानमंत्री जन धन योजना में 45 करोड़ खाते खोले गए हैं इनमें से 78% सरकारी बैंकों ने खोले हैं.

यूनिवर्सल बैंकिंग यानी हर व्यक्ति तक बैंक पहुँचाने के लिए सरकारी बैंकों का रोल महत्वपूर्ण है. प्राइवेट बैंक वहीं जाते है जहां मुनाफ़ा है. सिर्फ़ डिपॉजिट लेने में ही नहीं ज़रूरतमंद लोगों को क़र्ज़ देने में भी सरकारी बैंक आगे है. रिज़र्व बैंक का नियम है कि कुल क़र्ज़ का 40% खेती , छोटे मझोले उद्योग जैसे क्षेत्रों को देना होता है. प्राइवेट बैंक क़र्ज़ देने के बजाय Priority sector landing सर्टिफिकेट ख़रीद लेते है. ये सर्टिफिकेट इश्यू करने वाले फिर इन क्षेत्रों को क़र्ज़ देते हैं.

ये तर्क अपनी जगह ठीक है. सरकारी बैंकों के खिलाफ जो बड़ा आरोप लगता है कि वो सोच समझकर लोन नहीं देती है.बड़ी कंपनियों को सरकार के दबाव में लोन दे देती है. बट्टे खाते में डाल देती है. फिर सरकार को पूँजी लगाकर भरपाई करना पड़ती है.ये पूँजी होती हैं आपका और हमारा टैक्स. रेवड़ी की बहस में सरकार के शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च करने की बात हो रही है तो फिर बैंकों को चलाने के लिए सरकार को टैक्स का पैसा क्यों करना चाहिए?